मोटापा- लक्षण, निदान एवं चिकित्सा

 


आयुर्वेदानुसार जिन व्यक्तियों के नितम्ब, पेट और छाती में बहुत अधिक चर्बी और मांस जमा हो जाता है और ये अंग चलने पर हिलते रहते हैं अर्थात् गति करते रहते हैं तथा शरीर की वृद्धि के हिसाब से जिनमें बल एवं उत्साह नहीं होता, वे अति स्थूल या बहुत मोटे माने जाते हैं।


ऐसे व्यक्तियों के शरीर के स्रोतों में चर्बी के जमा होने से रुकावट पैदा हो जाती है। उसके कारण चलने में श्वास फूलने लगता है। शरीर में भारीपन, जल्दी घबराहट व बेचैनी रहती है। इससे वात विशेष रूप से कोष्ठ में गति करने लगता है और पाचक-अग्नि उत्तेजित हो जाती है। व्यक्ति जो कुछ भी खाता है, वह बहुत जल्दी पच जाता है और भूख बढ़ जाती है। इस तरह उसके अन्दर पाचक-अग्नि के रूप में पित्त और वात दोनों में विकार पैदा हो जाते हैं और शरीर में चर्बी बढ़ने लगती है। इससे वात के कारण से अनेक प्रकार के रोग पैदा हो जाते हैं।


कारण


आयुर्वेदानुसार मोटापे का प्रमुख कारण हैं- अधिक मात्रा में खाना, भारी, मीठे, ठण्डे और चिकने खाद्य-पदार्थों का सेवन, शारीरिक श्रम की कमी, दिन में सोना, बहुत अधिक प्रसन्न रहना, मानसिक शक्ति का अभाव तथा वंशानुगत (खानदानी) प्रभाव। इन सब कारणों से शरीर में दूसरी धातुओं (रस, रक्त आदि) की अपेक्षा चर्बी अधिक मात्रा में बढ़ती है। चर्बी के ढीलेपन, भारीपन और कोमलता के कारण उसकी गति और कार्य करने की क्षमता पर बुरा प्रभाव पड़ता है। शुक्र की मात्रा कम होने से तथा शुक्रवह स्रोतों में चर्बी के कारण रुकावट होने से मैथुन क्रिया में परेशानी होती है। मोटे लोगों की कार्य क्षमता धीमी हो जाती है। चर्बी के साथ कफ मिला होता है तथा चर्बी तरल और भारी होती है। धातु सन्तुलन बिगड़ जाता है। अतः मोटा शरीर होने पर भी दुर्बलता आ जाती है।


अतिस्थूलता के लिए चिकित्सा


आयुर्वेद के अनुसार स्थूलता अथवा मोटापे को दूर करने के लिए लंघन अथवा अपतर्पण चिकित्सा की जानी चाहिए। लंघन चिकित्सा वह चिकित्सा है, जो शरीर में लघुता (हल्कापन) लाती है तथा जिससे शरीर में चर्बी की कमी होने से वजन कम होता है। इस चिकित्सा में प्रयोग की जाने वाली औषधियों, आहार और साधनों में तेजस् (अग्नि), वात और आकाश महाभूत की प्रधानता होती है।


इस आधार पर लंघन के लिए लघु, उष्ण, चिपचिपाहट से रहित शुष्क (सूखे), रूक्ष (रूखे), सूक्ष्म, तरल तथा कठोर औषधि-द्रव्यों का प्रयोग किया जाता है।


इस प्रकार की चिकित्सा के लिए निम्नलिखित उपायों का प्रयोग किया जा सकता है-


संशोधन चिकित्सा – वमन (उल्टी), विरेचन (दस्त), बस्ति (एनिमा), नस्य (नाक में औषधि-निक्षेपण) द्वारा शरीर में जमा दोषों, मलों को बाहर निकालना।
रात्रि में जल्दी सोकर सुबह जल्दी उठना।
उपवास- कम मात्रा में और हल्का भोजन करना व समय पर भोजन करना।
प्यास पर नियत्रण करना। प्यास लगने पर गर्म पानी पीना।
हवा और धूप का सेवन व प्रातः सायंकाल भमण करना।
शारीरिक व्यायाम, योगासन, प्राणायाम आदि प्रतिदिन करना।
पाचक औषधियों का सेवन करना।
लंघन चिकित्सा के अतिरिक्त, निम्न प्रकार की चिकित्सा का प्रयोग भी स्थूलता को दूर करने के लिए किया जाना चाहिए।


रूक्ष तथा गर्म द्रव्यों का सेवन।
तक्र (छाछ) का सेवन।
तक्र के साथ जौ की रोटी व लौकी आदि के सुपच शाक का सेवन।
सुखोष्ण (गुनगुने) जल में प्रातः सायं एक-एक चम्मच शहद डालकर सेवन करना।
वातगुणयुक्त भोज्य पदार्थ व हरी सब्जियों तथा फलों का सेवन करना।
गिलोय, नागरमोथा, हरड़, बहेड़ा तथा आँवला का क्वाथ बनाकर 50-100 मिली मात्रा में  प्रातः सायं सेवन करना।
गेहूं, चावल, बाजरा तथा साबुत मूंग को 500-500 ग्राम लेकर धीमी आंच पर सेंककर दलिया बना लें। इसमें अजवायन 20 ग्राम तथा सफेद तिल 50 ग्राम मिला लें। 50 ग्राम दलिया को 400 मिली पानी में डालकर नियमित रूप से सेवन करने से मोटापे में लाभ होता है।
प्रतिदिन प्रातः, सायं एक-एक अश्वगंधा के पत्ते को हाथ से मसलकर गोली बनाकर भोजन से एक घण्टा पहले या खाली पेट गर्म जल के साथ सेवन करें। यह प्रयोग सात दिन करें, तदनन्तर 15 दिन के अन्तराल से पुनः सात दिन तक सेवन कर सकते हैं।
नियमित तथा संयमित दिनचर्या का पालन।
एक चम्मच त्रिफला चूर्ण (हरीतकी, बहेड़ा, आंवला) को 200 मिली पानी में भिगोकर रख दें। प्रातःकाल गर्म करके आधा रहने पर छानकर पियें।
इन सभी साधनों से मोटापा दूर होता है। मोटापे के अतिरिक्त उसी प्रकार के दूसरे रोग जैसे- हृदय रोग, क्षय, खाँसी, श्वेत कुष्ठ, मधुमेह, आम रोग आदि भी इनसे दूर होते हैं। आधुनिक युग में अधिक भौतिक सुविधाओं के कारण तथा शारीरिक कार्यों के अभाव के कारण स्थूलता (मोटापा) का रोग बढ़ता जा रहा है तथा इससे होने वाले रोगों की भी अधिकता हो रही है। उपरोक्त उपायों से मोटापा रोकने में सहायता मिल सकती है।


अतिकृशता- लक्षण, निदान एवं चिकित्सा


अत्यधिक पतले (दुर्बल) व्यक्ति के शरीर में नितम्ब, पेट और गर्दन एकदम सूखे हुए (पतले) होते हैं। उसकी त्वचा पर धमनियों का जाल सा बिछा दिखाई देता है। उसकी हड्डियों के जोड़ सर्वदा स्पष्ट नजर आते हैं। ऐसा व्यक्ति हड्डियों और चमड़ी का ढाँचा प्रतीत होता है।


बहुत पतले व्यक्ति में इतनी शक्ति नहीं होती कि अधिक शारीरिक श्रम, अधिक मात्रा में भोजन, भूख, प्यास, रोग, कष्ट और औषधियों के प्रभाव को सहन कर सके। वह अधिक सर्दी या अधिक गर्मी को सहन नहीं कर सकता और न ही समुचित सम्भोग कर सकता है। इस प्रकार के दुर्बल व्यक्ति अधिकतर तिल्ली, खाँसी, साँस फूलना, गुल्म, बवासीर तथा पेट, छाती व आँत के रोगों से पीड़ित रहते हैं ।


अतिकृशता के कारण


अधिक पतलेपन के मुख्य कारण हैं- रूखा खान-पान, उपवास, कम मात्रा में खाना, शोक, चिन्ता, क्रोध करना, स्वाभाविक वेगों को रोकना, कम सोना, अधिक स्नान करना, वमन, विरेचन आदि संशोधन चिकित्सा की अधिकता, रूक्ष द्रव्यों से उबटन, बुढ़ापा, वंशगत प्रभाव और अधिकतर रोग ग्रस्त रहना।


अतिकृशता अथवा दुबलेपन की चिकित्सा


अत्यधिक दुबलेपन को दूर करने लिए बृंहण या सन्तपर्ण चिकित्सा व साधनों को प्रयोग में लाया जाता है। इस प्रकार की चिकित्सा से शरीर का पोषण और बल की वृद्धि होती है तथा शरीर में भारीपन आता है। पृथ्वी और जल महाभूतों की अधिकता वाले द्रव्य, भोजन एवं साधनों का प्रयोग इसमें किया जाता है। इस आधार पर भारी, शीतल, कोमल, मन्द, चिपचिपे, स्थूल व घने पदार्थ इस दृष्टि से उपयोगी हैं। दूध, घी, पनीर, मक्खन व शहद का सेवन, स्नान, स्निग्ध पदार्थों का उबटन, अधिक नींद, स्निग्ध औषधियों से एनिमा व चिन्ताओं से दूर रहना तथा प्रसन्नतापूर्वक जीवन व्यतीत करना- से सब बृंहण चिकित्सा में आते हैं। इनके प्रयोग से शरीर का दुबलापन नष्ट होता है।


अच्छी नींद, प्रसन्नता, आरामदायक बिस्तर, सन्तोष और मन की निश्चिन्तता।
चिन्ता, सम्भोग और शारीरिक श्रम से बच कर रहना यानी इनकी अति न करना।
अच्छे लगने वाले दृश्यों और सम्बन्धियों का दर्शन, मिलना व उनसे वार्ता करना।
दही, घी, दूध, गन्ना, शालि चावल, उड़द, गेहूँ एवं गुड़ से बने पदार्थों का सेवन।
नियमित रूप से तेल की मालिश, स्निग्ध द्रव्यों का उबटन और गर्म जल से स्नान।
सौम्य व कोमल वत्रों को धारण करना। प्राकृतिक सुगन्धित द्रव्यों (इत्रों) और मालाओं का प्रयोग।
रसायन चिकित्सा एवं वृष्य (शुक्र बढ़ाने वाली) औषधियों का सेवन।
सब प्रकार की चिन्ता से मुक्त रहना और उचित समय पर पौष्टिक पदार्थों का सेवन करना।
नियमित आसन एवं प्राणायाम करना। प्रातः भमण द्वारा शुद्ध वायु का सेवन करना।
लघु तथा शीघ पचने वाले अन्न का सेवन तथा शीतल तथा मिश्री युक्त दुग्ध में एक चम्मच शहद डालकर नित्य प्रातः तथा सायं सेवन करना।
सोयाबीन, गेहूँ, जौ, चना आदि प्रोटीन युक्त पदार्थों को मिलाकर दलिया लेना चाहिए या संतुलित आहार का सेवन करना चाहिए।
इन सब उपायों से अधिक कृशता एवं उससे होने वाले रोगों से छुटकारा पाया जा सकता है। संक्षेप में चिन्ता न करने, प्रसन्न रहने, अधिक नींद लेने और नित्य बृंहण गुण वाले आहार व औषधि के सेवन से अतिकृशता को दूर किया जा सकता है।


अतिकृशता की अपेक्षा अतिस्थूलता अधिक हानिकर


जैसा कि उल्लेख किया गया है- अधिक मोटापा व अधिक दुबलापन, दोनों ही अवस्थाएँ
हानिकारक हैं। क्योंकि दोनों प्रकार के व्यक्ति किसी न किसी रोग से पीड़ित रहते हैं और दोनों को ही उपचार की समान रूप से आवश्यकता होती है, परन्तु इन दोनों में मोटापे की स्थिति अपेक्षाकृत अधिक बुरी होती है। अतः रोग होने पर मोटे व्यक्ति को अधिक कष्ट होता है तथा मोटे व्यक्ति की चिकित्सा भी पतले की अपेक्षा अधिक कठिन होती है; क्योंकि ऐसे व्यक्ति के लिए इस प्रकार की चिकित्सा होनी चाहिए, जो बढ़ी हुई चर्बी, पाचक-अग्नि और वात को कम करे। यदि इसके लिए बृंहण प्रकार की चिकित्सा करते हैं तो पाचक-अग्नि और वात तो शान्त होते हैं, परन्तु चर्बी बढ़ जाती है। यदि लंघन (दुर्बल करने वाली) चिकित्सा करते हैं तो चर्बी तो घटती है, परन्तु पाचक-अग्नि और वात की वृद्धि होती है। दूसरे शब्दों में- बृंण चिकित्सा करने से व्यक्ति में मोटापा और अधिक बढ़ता है और लंघन चिकित्सा करने पर पाचन-शक्ति तेज होने के कारण वह उसको सहन नहीं कर पाता है, अतः कृशता की अपेक्षा मोटापे की चिकित्सा करना कठिन व जटिल कार्य है।


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