लंबे समय से राजनीतिक पंडित कह रहे थे कि उपचुनाव के नतीजे ही शिवराज की कुर्सी की किस्मत तय करेंगे। जहां तक नतीजों की बात है तो शिवराज ने साबित कर दिया है कि उनकी लोकप्रियता अब भी बरकरार है। इन चुनावों को शिवराज के लिए लिटमस टेस्ट माना जा रहा था। इसी वजह से मुख्यमंत्री ने चारों क्षेत्रों में 40 से अधिक चुनावी रैलियां कीं। इसलिए जोबट और पृथ्वीपुर जैसे पारंपरिक कांग्रेस के गढ़ों में जीत हासिल करना एक बड़ी उपलब्धि है। इससे निश्चित तौर पर शिवराज को हटाने की अटकलों पर विराम लग जाएगा। साथ ही पार्टी के भीतर जो लोग मुख्यमंत्री बदलने के लिए सक्रिय हो रहे थे, उनकी गतिविधियों पर अंकुश लगाया जाएगा।
अय्यूब के बारे में पहली बात। यहां बीजेपी की जीत बहुत मायने रखती है। 2019 के लोकसभा चुनाव में भी इस विधानसभा क्षेत्र में कांग्रेस को बढ़त मिली थी। ऐसे में जब बीजेपी ने कांग्रेस नेता सुलोचना रावत को पार्टी में शामिल कर उम्मीदवार बनाया तो गुटबाजी भी सामने आई थी। किसी तरह सब कुछ नियंत्रण में था और भाजपा ने कांग्रेस की चुनौती को आसानी से हरा दिया।
पृथ्वीपुर की बात करें तो वहां की स्थिति कुछ अलग थी। कांग्रेस ने अपने पूर्व मंत्री के बेटे नितेंद्र राठौड़ पर भरोसा किया था। माना जा रहा था कि सनसनी की लहर में सीट बचाने में कामयाब हो जाएंगे। पर ऐसा हुआ नहीं। बीजेपी ने चुनावी मौसम में डॉ. शिशुपाल यादव को मैदान में उतारा और जीत हासिल की। जहां तक रायगांव की बात है तो तीन-चार कारक भाजपा के खिलाफ गए। इसमें सबसे अहम था पूर्व मंत्री जुगल किशोर बागड़ी के परिवार का विरोध। इससे रायगांव से बीजेपी उम्मीदवार प्रतिमा बागरी को काफी नुकसान हुआ है।
बसपा फैक्टर का भी दबदबा
बसपा का पृथ्वीपुर और रायगांव दोनों विधानसभा सीटों पर खासा प्रभाव है। आमतौर पर बसपा ने अपनी नीति बनाई है कि उपचुनाव नहीं लड़ा जाना चाहिए। इसका भी इन उपचुनावों के नतीजों पर बड़ा असर पड़ा। दरअसल, इन सीटों पर अक्सर गैर-भाजपा वोट बसपा और कांग्रेस के बीच बंट जाते हैं। ऐसे में ऐसा लग रहा था कि बसपा की गैरमौजूदगी का फायदा कांग्रेस को ही मिलेगा। यह रायगांव में जरूर दिखाई दे रहा था, लेकिन पृथ्वीपुर में बिल्कुल नहीं। रायगांव से कल्पना वर्मा पहले भी कांग्रेस से चुनाव लड़ चुकी हैं। हारने के बाद भी वह क्षेत्र में सक्रिय रहीं, जिसका लाभ उन्हें उपचुनाव में मिला। लोकसभा चुनाव से ठीक पहले बसपा की उषा चौधरी का कांग्रेस में शामिल होना भी कांग्रेस के लिए फायदेमंद रहा।
खंडवा में कांग्रेस ने दिया वाकओवर
खंडवा लोकसभा सीट को तो लगा ही नहीं कि कांग्रेस लड़ रही है। पार्टी की हार निश्चित थी जब उन्होंने पूर्व प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अरुण यादव की उम्मीदवारी के कारण चुनाव लड़ने से इनकार कर दिया। पार्टी एकजुट नजर नहीं आई। यादव भी अक्सर पार्टी के प्रचार में दिखाई देते थे। वहीं बीजेपी ने पूर्व सांसद नंदकुमार सिंह चौहान के बेटे की जगह उनके करीबी ज्ञानेश्वर पाटिल को मैदान में उतारा है। बाकी काम संस्था ने किया। तभी पार्टी 80 हजार से ज्यादा वोटों से जीतने में सफल रही।
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