डर कहीं न होकर हर जगह मौजूद होता है। यह हमारे जीवन का अभिन्न अंग है। क्या डरना जरूरी है? इस विषय पर कई शोध हो चुके हैं। हमारे भीतर का सुरक्षा तंत्र अपने आप हमें डरने पर मजबूर कर देता है। कोई कितना भी वीर क्यों न हो, जीवन में कभी-न-कभी उसका सामना डर से जरूर होता है। आम तौर पर हम डर को जितनी बड़ी चुनौती समझते हैं, वैसा कुछ होता नहीं है। दरअसल, इसकी ज्यादातर परिस्थितियां मानव निर्मित होती हैं। हमारे डर के जन्मदाता स्वयं हम हैं, इसलिए निर्भय होने की सबसे सहज विधि है खुद को अलग करके तटस्थता से हर परिस्थिति का सामना करना। जीवन में आने वाली कई नाजुक परिस्थितियों में हम ठोस निर्णय लेने में खुद को असमर्थ पाते हैं, हम इस चिंता में रहते हैं कि कहीं किसी को नाराज न कर दें। यह भय हमें अंदर ही अंदर खोखला करता है। मनोचिकित्सकों के अनुसार, इंसान डरता तब है, जब वह अपनी भावनाओं के बारे में स्पष्ट नहीं होता।
कहा जाता है कि युवाओं में बढ़ रही अपराध दर की शुरुआत भी डर से ही होती है। पर इस डर का इलाज क्या है? मूल रूप से हम डरते तब हैं, जब हम कुछ चाहते हैं, पर उसे हासिल नहीं कर सकते या हमारे पास कुछ है और हम उसे खोना नहीं चाहते हैं। व्यावहारिक रूप से यदि देखा जाए, तो जब हम किसी से कुछ चाहते हैं, तो सीधा यह कहने की बजाय कि मुझे यह चीज कैसे मिलेगी, हमें यह कहना चाहिए कि मैं ऐसा क्या करूं, जिससे मुझे यह चीज प्राप्त हो? ऐसा करने से हम एक लेने वाले की मानसिकता से निकल दाता की मानसिकता में आ जाते हैं। इससे जो हम चाहते हैं, वह बिना कोई संघर्ष या तनाव के खुद ही हमें प्राप्त हो जाता है। अत: यह महत्वपूर्ण पाठ अवश्य पक्का कर लें कि बिना किसी डर के हम सदैव जीवन की किसी भी स्थिति से निपटने के लिए एक रचनात्मक समाधान के बारे में सोच सकते हैं, इसलिए डरे नहीं, बल्कि स्पष्ट रहें।