अटल सुहाग का प्रतीक गणगौर पर्व
प्रोफेसर चाँदनी पटेल, प्रोफेसर प्रियंका राजपूत, असिस्टेंट प्रोफेसर सेज विश्वविद्यालय इंदौर

इंदौर।
गणगौर राजस्थान का मुख्य पर्व है। गणगौर मध्य प्रदेश के निमाड़ अंचल का भी प्रमुख पर्व है। इस पर्व की हिन्दू धर्म में काफी मान्यता है। राजस्थान के अलावा यह पर्व गुजरात, पश्चिम बंगाल, मध्य प्रदेश आदि प्रदेशों के कुछ भागों में मनाया जाता है। हालांकि अन्य जगहों के अपेक्षा राजस्थान में इस पर्व को काफी धूम-धाम के साथ मनाया जाता है। गणगौर शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है पहला गण और दूसरा गौर गण शब्द भगवान शंकर को समर्पित है तो वही गौर शब्द माता पार्वती को गणगौर के त्यौहार में पूजा भी माता पार्वती और भगवान शिव की जाती है। गणगौर का यह पर्व भगवान शिव तथा माता पार्वती को समर्पित है अर्थात इस दिन शिव पार्वती की पूजा करते है। यह पर्व होली के दिन से शुरु होकर अगले 16 दिनों तक चलता है। माना जाता है कि गौरा अपने पीहर आती है, तो पीछे-पीछे भगवान शिव भी उसे लेने आ जाते हैं और फिर चैत्र शुक्ल द्वितीया तथा तृतीया को गौरा को अपने ससुराल के लिए विदा कर दिया जाता है। राजस्थान में ऐसी मान्यता है कि नवविवाहित स्त्रियों को सुहाग और सौभाग्य की कामना पूर्ति करने के लिए गणगौर का व्रत रखना चाहिए।

मालवा निमाड़ में गणगौर पर्व
गणगौर मालवा निमाड़  का गौरवमय पर्व है।  पारिवारिक व सामाजिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है गणगौर का त्योहार। चैत्र गणगौर पर्व गणगौर दशमी से अथवा एकादशी से प्रारंभ होता है, जहां माता की बाड़ी यानी जवारे बोए जाने वाला स्थान पर नित्य आठ दिनों तक गीत गाए जाते हैं। यह गीत कन्याओं, महिलाओं, पुरुषों, बालकों के लिए शिक्षाप्रद होते हैं। सर्वप्रथम होलिका दहन के स्थान से होली की जली राख से बिना थापे बने कंडे (खड़े) एवं पांच कंकर की गौरा माता घर लाते हैं। यह तभी निश्चित कर लिया जाता है कि कितने रथ तैयार होंगे। उसी अनुरूप छोटी-छोटी टोकरियों (कुरकई) में चार देवियों के स्वरूप चार में गेहूं के जवारे एवं बच्चों के स्वरूप छोटे-छोटे दीपकों में सरावले बोए जाते हैं। एक बड़े टोकने में मूलई राजा बोए जाते हैं।
चारों देवियों एवं सरावले व मूलई राजा के जवारों का नित्य अति शुद्धता पूर्व पूजन एवं सिंचन जिस कमरे में किया जाता है उसे माता की कोठरी कहते हैं। इसी माताजी की वाड़ी में प्रतिदिन शाम को कई स्त्रियां धार्मिक भावना से चारों माता के विष्णु राजा की पत्नी लक्ष्मी, ब्रह्माजी की सइतबाई, शंकरजी की गउरबाई एवं चंद्रमाजी की रोयेणबाई के गीत मंगल गान के रूप में गाए जाते हैं।
तंबोल यानी गुड़, चने, जुवार, मक्के की धानी, मूंगफली) बांटी जाती है। 
गणगौर पर्व को राजस्थान और मालवा निमाड़ की शान भी कहा जाता है। गणगौर पर्व या जिसे गौरी तृतिया के नाम से भी जाना जाता है उसे महिलाओं द्वारा भगवान शिव और माता पार्वती की पूजा की जाती है। इस त्योहार के उत्पत्ति को लेकर कई सारी कथाएं प्रचलित है। शिव पुराण के अनुसार माता पार्वती ने शिव जी को अपने पति के रुप में प्राप्त करने के लिए घोर तपस्या की थी। उनकी इस तपस्या से प्रसन्न होकर शिवजी ने उन्हें दर्शन देते हुए अपने पत्नी के रुप में स्वीकार किया था। इसके अलावा एक अन्य कथा के अनुसार माता पार्वती ने महिलाओं के सेवा से प्रसन्न होकर उनपर सुहाग रस बरसाया था। गणगौर पर्व में सबसे महत्वपूर्ण रिवाज माना जाता है व्रत कथा और बिना इसके गणगौर पर्व पूरा नही माना जाता। ऐसा मानना है कि यह कथा सुनने और सुनाने से सभी तरह के दुखों से मुक्ती मिलती है व्यक्ति को जीवन में सौभाग्य तथा अटल सुहाग की प्राप्ति होती है।
गणगौर के कई महत्व बताए जाते है जैसे चैत्र शुक्ल तृतिया के दिन मनाये जाने के कारण गणगौर पर्व को गौरी तृतिया भी कहते हैं। यह पर्व राजस्थान के मूल क्षेत्र के संस्कृति और मान्यताओं को प्रदर्शित करता है। लोगो द्वारा इस पर्व की सभी प्राचीन परम्पराओं का पालन कर के मनाया जाता है। कई जगह लोग इस गणगौर पर्व को लेकर परिवर्तन करने की आवश्यकता समझी जैसे कि आज उपयोग किये हुए दिये या डेबरियों को कुएं या जलकुंड में फेकने के जगह जमीन पर रख सकते हैं या इसे तोड़कर मिट्टी में दबा देते हैं जो कि पर्यावरण के लिए अनुकूल रहता है। इस उत्सव पर एकत्रित भीड़ जिस श्रृद्धा एवं भक्ति के साथ धार्मिक अनुशासन में बंधी गणगौर की जय-जयकार करती हुई भारत की सांस्कृतिक परम्परा का निर्वाह करती है उसे देख कर अन्य धर्मावलम्बी भी इस संस्कृति के प्रति श्रृद्धा भाव से ओतप्रोत हो जाते हैं।
हमें भी आज आवश्यकता है इस लोकोत्सव को अच्छे वातावरण में पूर्ण हर्ष और उल्लास के साथ मनाएं। और हमारी प्राचीन परम्परा को अक्षुण बनाए रखें ताकि हम अपनी आने वाली पीढ़ी को भी इस पर्व की महत्वता से रूबरू करवा पाए।

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